‘पद एक, भूमिका अनेक’ का दादा फॉर्मूला कही क्रिकेट को हॉकी न बना दें!


सौरव गांगुली उस दौर में जी रहे है जबकि देश मे बहुत कुछ पहली बार हो रहा है। अक्सर हम खबरों में सुनते है कि फलां काम को फलां आदमी ने पहली बार किया और हमारे पीएम मोदी ने तो ऐसे कामों के संबंध में इतिहास ही रच दिया है। दादा यानी सौरव गांगुली भी कुछ-कुछ मोदी के नक्श-ए-कदम पर चल रहे है। दादा बीसीसीआई के पहले अध्यक्ष है जो न सिर्फ चयनकर्ताओं की मीटिंग में खुलेआम भाग ले रहे है बल्कि अपने इस अभूतपूर्व कृत्य को जायज भी ठहरा रहे है।

वो कहते है कि उनको बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने का अनुभव है सो वो ऐसा करके चयन समिति के सदस्यों की राहें ही आसान कर रहे है और टीम की चयन प्रक्रिया को मजबूत आधार प्रदान कर रहे है। अब अगर अनुभव ही टीम की चयन समिति की बैठक में भाग लेने का आधार है तो इस आधार पर तो सचिन, कुंबले, द्रविड़ सहित अन्य दिग्गज खिलाड़ी उनसे इस मामले में इक्कीस बैठेंगे। कल को ये न हो कि बोर्ड को अपने संविधान में बदलाव कर अनुभव के आधार पर चयनकर्ताओं को पहले आओ-पहले टीम बनाओ का एलान करना पड़े।

गांगुली ने जो कुछ किया और अपने किये पर जो भी कहा वो न तो बीसीसीआई के संविधान से सुसंगत है और न ही नैतिकता के खांचे में दुरूस्त बैठता है। उनके इस कृत्य से चयनकर्ताओं की स्वायत्तता भी प्रभावित होती है। अपने देश मे जहाँ वीवीआइपी कल्चर एकदम से लोगों के मन-मस्तिष्क, आचार-विचार में रचा-बसा हो; ऐसे में बोर्ड अध्यक्ष के सामने चयनकर्ता अपनी पसंद का फैसला कर पाएं, इसकी संभावनाएं तो बेहद कम है। यानी इससे चयनकर्ताओं की स्वायत्तता का मुद्दा भी प्रभावित होता है।

एक बोर्ड अध्यक्ष का काम होता है कि वो टीम का प्रबंधन अच्छे से करें, टीम के प्रशासन को बेहतर ढंग से संभाले। मगर यहाँ अध्यक्ष जी ‘एक पद, भूमिका अनेक’ सिद्धांत पर काम कर रहे है। ऊपर से अध्यक्ष जी के बैठक में शामिल होने के बावजूद भी रिद्धिमान साहा टीम में न चुने जा सकें। बाद में रिद्धिमान साहा ने कहा कि दादा ने उनको मैसेज करके बोला था कि जब तक दादा बोर्ड में रहेंगे तब तक उन्हें टीम से कोई हटा न सकता। अपने खेल के दिनों में निर्भीकता के साथ खेलने वाले दादा पर अब भाई-भतीजावाद के भी आरोप लगने लगे है।

दादा को ये न भूलना चाहिए कि एक कोच ने ही टीम के चयन में हस्तक्षेप करके उनके बने-बनाएं कैरियर की लंका लगा दी थी। हालांकि तब भी देश उनके साथ खड़ा था। अब जब दादा नई भूमिका के साथ उसी इतिहास को दोहरा रहे है तो ये देश के उन सैकड़ों खिलाड़ियों के साथ छल जैसा न होगा जो एक लेवल प्लेइंग फील्ड और समान अवसर के आधार पर टीम में जगह बनाने की आकांक्षा रखते हुए हाड़-तोड़ मेहनत कर रहे है।

खैर! दादा की करनी दादा ही जाने। एक खेल प्रशंसक के तौर पर मेरा दादा सहित तमाम खेल प्रशासकों से यही कहना है कि खेल को खेल ही रहने दीजिये। खेल में राजनीति घुसेड़ कर खिलाड़ियों और खेल के भविष्य को बर्बाद करने का उपक्रम मत साधिए वर्ना राजनीति ने हॉकी का क्या हश्र किया है, ये सबको पता है… कही क्रिकेट के साथ ऐसा न हो जाएं!

लेखक: संकर्षण शुक्ला