भारत में ‘शोध एवं विकास’ के पारितंत्र का भविष्य?


बजट 2021-2022 में केंद्र सरकार ने भारत मे शोध एवं विकास पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत बनाने के लिए एक संस्था की घोषणा की। इस संस्था का नाम है नेशनल रिसर्च फाउंडेशन। सरकार ने कहा कि इस संस्था को हर साल 10 हजार करोड़ रूपये आवंटित किए जाएंगे। ये भी उम्मीद जताई गई कि इससे भारत मे ‘शोध एवं विकास’ के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आएंगे। अगर इस संस्था की ढांचे की बात की जाएं तो ये स्वायत्त प्रकृति की होगी और इसमें कम से कम प्रशासनिक हस्तक्षेप होगा।शोध एवं विकास की प्रक्रिया में संलग्न हजारों संस्थान इसके अधिकार क्षेत्र में शामिल होंगे।

इस घोषणा के एक साल बाद प्रस्तुत किये गए नए बजट 2022-2023 मे सरकार ने इस संस्था की प्रगति पर न तो कोई बात की और न ही इसे कोई धन आवंटित किया। इतना ही नहीं इस साल के बजट आवंटन में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के बजट को 3.9 फीसदी घटा भी दिया गया। इस साल के बजट में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय को 14,217 करोड़ रूपये ही आवंटित किए गए। भारत मे लगातार बढ़ती जा रही शोधार्थियों की संख्या के हिसाब से बजट का ये आंकड़ा कम ही प्रतीत होता है।

इनमें से भी ज्यादा धन तो 2-3 भारतीय शोध संस्थाओं की ही मिल जाता है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन, परमाणु ऊर्जा एवं अंतरिक्ष विभाग ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय को आवंटित किए गए बजट का 30-40 फीसदी हिस्सा ले जाते है। बजट का शेष हिस्से संस्थाओं के एक बड़े समूह को मिलता है जिनमें भारतीय कृषि एवं अनुसंधान परिषद, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, बायोटेक्नोलॉजी विभाग, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद आदि प्रमुख है। हालांकि इन संस्थाओं के शोध बेहद मानीखेज है और इन्होंने देश के वैज्ञानिक, आर्थिक और सामाजिक विकास में अहम योगदान दिया है।

अगर भारत में अनुसंधान पर खर्चा किये जाने वाले कुल धन की बात करूं तो ये जीडीपी का 0.6-0.8 फीसदी है जो विकसित देशों की तुलना में बेहद कम है। भारत की वैश्विक अनुसंधान में महज 1-3 फीसदी की हिस्सेदारी है। वही संयुक्त राज्य अमेरिका की विश्व अनुसंधान में 25 फीसदी हिस्सेदारी है तो चीन भी 23 फीसदी की बड़ी हिस्सेदारी रखता है। विश्व बैंक ने किसी भी देश की जनसंख्या के अनुपात में शोधार्थियों की संख्या सम्बंधी आंकड़े जारी किए थे।

इन आंकड़ों के अनुसार चीन में प्रति एक लाख जनसंख्या पर 423 शोधार्थी है जबकि अमेरिका में ये आंकड़ा 111 का है। अगर मैं भारत की बात करूं तो यहाँ प्रति एक लाख जनसंख्या पर 15 शोधार्थी है। इसके बावजूद भी सरकार इस मद में बजट के आवंटन को घटा रही है तो ये बेहद सोचनीय बात है। यदि भारत अपनी जीडीपी का एक फीसदी से कम अनुसंधान मद पर खर्चा करेगा तो कैसे वैश्विक महाशक्ति बन पाएगा।

आज भारत में इतना मजबूत स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र है। हम स्टार्टअप की संख्या के मामले में विश्व मे तीसरे स्थान पर है। यहाँ पर यूनिकॉर्न कंपनियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ऐसे में सरकार को अनुसंधान के लिए और अधिक धन आवंटित करना चाहिए।

भारत में अगर शोध पारिस्थितिकी को और अधिक मजबूत बनाना है तो इसके लिए सरकार को निजी क्षेत्रों की भी मदद लेनी होगी। विकसित देशों में निजी क्षेत्र अनुसंधान पर अच्छा खासा धन खर्चा करता है। अमेरिका में टेस्ला, स्पेसएक्स, ब्लू ओरिजिन आदि कंपनियां शोध एवं विकास पर बहुत ज्यादा निवेश करती है। इसके अलावा भारत सरकार को इस सम्बंध में अपनी नीतियों में भी निरंतरता लानी होगी।

सरकार अनुसंधान के विकास के लिए संगठन की घोषणा तो कर देती है मगर उस संगठन के उचित क्रियान्वयन पर ध्यान न देती है। ऐसा न है कि भारत में इस दिशा में और संस्थाएं न है। विज्ञान एवं इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड को ही अगर पर्याप्त शक्तियां और स्वायत्तता दे दी जाएं तो ये भी भारत की शोध पारिस्थितिकी में क्रांतिकारी बदलाव ला दें। इस संस्था ने इस दिशा में बहुत ज्यादा योगदान किया भी है।

हम अक्सर चीन से अपनी तुलना करते है और उसके विकास मॉडल पर भी चर्चा करते है। चीन से हम ये सीख सकते है कि कैसे अपने देश में शोध एवं अनुसंधान के मजबूत पारिस्थितिकी तंत्र का विकास कर आर्थिक वृद्धि की बुनियाद रखी जाती है। हालांकि ये वाद-विवाद का विषय है कि चीन की विकास समावेशी है या नहीं? मगर ये सच जरूर है कि चीन ने शोध के विकास में पर्याप्त पूंजी लगाकर अपने यहाँ एक अनुकूल शोध पारितंत्र सृजित किया है।

भारत में शोध के विकास के संबंध में पहले से ही काफी ज्यादा नीतियां है। इसलिए अब जरूरत है कि इन नीतियों का आपस मे उचित तालमेल हो। इसके साथ ही अगर एक ही क्षेत्र के विकास के लिए अलग-अलग नीतियाँ है तो उनका समेकन भी किया जाना चाहिए। इससे प्रशासनिक जटिलता भी कम होगी और क्षेत्र विशेष के विकास में एकरूपता भी आएगी।

संकर्षण शुक्ला