हमारे देश मे नौकरी को लेकर ऐसा माहौल गढ़ा है


हमारे देश मे नौकरी को लेकर ऐसा माहौल गढ़ा है हमारे हालिया पूर्वजों ने कि सरकारी नौकरी छोड़ सब कुछ बेकार ही समझा जाता है। एक बीटेक ग्रेजुएट जो ठीकठाक तरीके से पढ़ाई कर के आया हो और जिसने 15-20 हजार प्रति महीने के साथ ही शुरूआत की हो और दस सालों में टीम लीडर बन कर पौने से लेकर सवा लाख रूपये प्रतिमाह कमा रहा हो…

उसकी तुलना में अगर कोई दस साल की तैयारी करने के बाद अगर लोवर पीसीएस में भी सेलेक्ट हुआ हो तो समाज उस लोवर पीसीएस वाले को ज्यादा मेहनती-महान कहेगा। कुछ लोग तो इतने बड़े वाले है कि यहाँ तक कह देंगे कि बड़े बाबू की किस्मत सोने की कलम से लिखी गयी थी और बीटेक बाबू की किस्मत …

तो… इस पर आपको एक कहानी सुनाते है… मेरे गाँव में एक लड़के ने बीटेक किया।

उसके बाद उसने बीटीसी का कोर्स जॉइन कर लिया। इस पर एक महिला ने जबरदस्त चुटकी ली कि बीटेक करके कौन अपने लड़के को बीटीसी कराता है, हम तो कतई ये न कराएंगे। 3 साल बाद उन्हीं के लड़के ने बीटेक करके बीटीसी में दाखिला लिया और फिर उसने यूपीटेट के एग्जाम को न्यूनतम अंकों के साथ पास किया… फिर नौकरी जॉइन की।

आज उनके घर वाले ये कहते-फिरते है कि उन्होंने किस्मत के सागर में डुबकी लगाई है वर्ना लोग तो सीरतगंज में ही डूबे रहे है। ये माहौल पिछले दस-बीस सालों में और ज्यादा बना है जबसे वेतन आयोग पर आयोग गठित किये गए और तनख्वाह को घातांकी रूप में बढ़ाया गया। हालांकि तनख्वाह से ज्यादा ये सामाजिक हैसियत का मसला है और उससे ज्यादा ये आराम का मामला है।

जनता कहती है कि सुबह 7 से 12 जाना है, हाथ का काम नही है, बस मुँह चलाना है, कलम चलानी है और चले आना है। कुलजमा काम न करने अर्थात अकर्मण्यता को ग्लैमराइज किया गया है। अब जिस देश मे अकर्मण्यता को किस्मत समझा जाता है वो कैसे सुपरपॉवर बन सकता है या फिर इसको सोच सकता है?

बावजूद इसके हम-सब चर्चा करते-फिरते है कि ये देश कभी न सुधर सकता है! अरे! 64 फीसदी युवा आबादी को अकर्मण्यता का आकर्षण दिखा उन्हें दस साल तक उसी कुचक्र में बाझे(फंसाएं) रखा जाता है फिर जब वो गन्ने के रस में पड़ने वाले नींबू की भांति निचोड़ जाते है तो फिर कहा जाता है कि अब अपने लिए कुछ कर! ऐसे में वो न अपने लिए कुछ कर पाता है… और देश के लिए तो क्या ही करेगा?

संकर्षण शुक्ला