न्यायपालिका और कॉलेजियम व्यवस्था

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चर्चा में क्यों ?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय का कॉलेजियम एक बार फिर चर्चा में है क्योंकि इस बार एक बैठक में पांच जजों को एक साथ आने में दिक्कत हो रही है।

प्रमुख बिन्दु …

भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति यू.यू. ललित ने 27 अगस्त, 2022 को पदभार ग्रहण किया था। उनका कार्यकाल छोटा है और 8 नवंबर, 2022 को कार्यालय छोड़ दिया।

सर्वोच्च न्यायालय महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई के लिए पांच संविधान पीठों का गठन करता है, जिन्हें उनके पूर्ववर्तियों ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था।

26 सितंबर को कॉलेजियम की एक बैठक हुई थी जिसमें कॉलेजियम के सभी पांच सदस्य मौजूद थे। उन्होंने न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, जो अभी बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हैं, पर सकारात्मक निर्णय लिया।

शेष स्लॉट के लिए कई अन्य नाम विचाराधीन हैं, और इनमें उच्च न्यायालयों के चार मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय में अभ्यास करने वाला एक वकील शामिल है।

इसे 30 सितंबर तक के लिए टाल दिया गया है। हालांकि, 30 सितंबर को बैठक इसलिए नहीं हो रही है क्योंकि जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, वरिष्ठतम न्यायाधीश और अगले सीजेआई बनने की कतार में, रात 9.30 बजे तक अदालत में बैठे रहते हैं। चूंकि बैठक निर्धारित समय के अनुसार नहीं हो सकती, इसलिए CJI सर्कुलेशन द्वारा अनुमोदन प्राप्त करने का प्रयास करता है।

दो जजों ने मंजूरी दे दी लेकिन जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस नजीर ने मंजूरी रोक दी। वे नामों पर आपत्ति नहीं कर रहे थे बल्कि इसकी प्रक्रिया पर आपत्ति जता रहे थे।

इसी दौरान कानून मंत्री की ओर से एक पत्र आया है जिसमें उनके उत्तराधिकारी की नियुक्ति पर सीजेआई की राय पूछी गई है।

कॉलेजियम व्यवस्था …

उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया के सम्बन्ध में संविधान में कोई व्यवस्था नहीं दी गई है।

अतः यह कार्य शुरू में सरकार द्वारा ही अपने विवेक से किया जाया करता था।

परन्तु 1990 के दशक में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप करना शुरू किया और एक के बाद एक कानूनी व्यवस्थाएँ दीं। इन व्यवस्थाओं के आलोक में धीरे-धीरे नियुक्ति की एक नई व्यवस्था उभर के सामने आई। इसके अंतर्गत जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की अवधारणा सामने आई।

सर्वोच्च न्यायालय में भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा चार वरिष्ठतम न्यायाधीश कॉलेजियम के सदस्य होते हैं।

ये कॉलेजियम ही उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति के लिए नाम चुनती है और फिर अपनी अनुशंसा सरकार को भेजती है।

सरकार इन नामों से ही न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए कार्रवाई करती है।

कॉलेजियम की अनुशंसा राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी नहीं है।यदि राष्ट्रपति किसी अनुशंसा को निरस्त करते हैं तो वह वापस कॉलेजियम के पास लौट जाती है। परन्तु यदि कॉलेजियम अपनी अनुशंसा को दुहराते हुए उसे फिर से राष्ट्रपति को भेज देती है तो राष्ट्रपति को उस अनुशंसा को मानना पड़ता है।

कॉलेजियम व्यवस्था कैसे काम करती है?

कॉलेजियम अपनी ओर से वकीलों और जजों के नामों की केन्द्रीय सरकार को अनुशंसा भेजता है. इसी प्रकार केंद्र सरकार भी अपनी ओर से कॉलेजियम को कुछ नाम प्रस्तावित करती है।

संवैधानिक प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में यह प्रावधान है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की इतनी संख्या जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिये आवश्यक समझे, से परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

अनुच्छेद 217 के अनुसार, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा CJI और राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाएगी और मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श किया जाएगा । 

सरकार की भूमिका- कॉलेजियम द्वारा भेजे गये नामों की केंद्र सरकार तथ्यात्मक जाँच करती है और फिर सम्बंधित फाइल को कॉलेजियम को लौटा देती है।

तत्पश्चात् कॉलेजियम केंद्र सरकार द्वारा भेजे गये नाम और सुझावों पर विचार करता है और फिर फाइल को अंतिम अनुमोदन के लिए सरकार को फिर से भेज देता है। जब कॉलेजियम फिर से उसी नाम को दुबारा भेजता है तो सरकार को उस नाम पर अनुमोदन देना पड़ता है। किन्तु सरकार कब अब अपना अनुमोदन देगी इसके लिए कोई समय-सीमा नहीं है। यही कारण है कि जजों की नियुक्ति में लम्बा समय लग जाता है।

कॉलेजियम व्यवस्था को बदलने के प्रयास

कॉलेजियम व्यवस्था कई कारणों से आलोचना का केंद्र रही है। इसलिए सरकार चाहती है कि इसे हटाकर एक ऐसी प्रणाली बनाई जाए जिसमें कॉलेजियम व्यवस्था की तरह निरंकुशता और अपारदर्शिता न हो।

इस संदर्भ में संसद ने 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना से सम्बंधित एक कानून पारित किया था परन्तु 16 अक्टूबर, 2015 को सर्वोच्च न्यायालय ने बहुमत इस प्रस्ताव को निरस्त करते हुए कहा था कि यह असंवैधानिक है और यह न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को चोट पहुँचेगी।

न्यायालय का कहना था कि प्रस्तावित संशोधनों के कारण न्यायपालिका की स्वतंत्रता को क्षति पहुँचेगी तथा न्यायिक नियुक्तियों को कार्यपालिका के नियंत्रण से दूर रखना चाहिए।

वर्तमान कॉलेजियम व्यवस्था पर उठते प्रश्न …

कॉलेजियम व्यवस्था पर समय समय पर अनेक सवाल उठते रहे हैं …

पारदर्शिता की कमी- कामकाज के लिये लिखित मैनुअल का अभाव, चयन मानदंड का अभाव, पहले से लिये गए निर्णयों में मनमाने ढंग से उलटफेर, बैठकों के रिकॉर्ड का चयनात्मक प्रकाशन कॉलेजियम प्रणाली की अपारदर्शिता को साबित करता है। कोई नहीं जानता कि न्यायाधीशों का चयन कैसे किया जाता है और इस प्रकार की नियुक्तियों ने औचित्य, आत्म-चयन तथा भाई-भतीजावाद जैसी  चिंताओं को जन्म दिया है।

सदस्यों के बीच सहमति का अभाव- कॉलेजियम के सदस्यों को अक्सर न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में आपसी सहमति के मुद्दे का सामना करना पड़ता है। कॉलेजियम के सदस्यों के बीच अविश्वास की भावना न्यायपालिका के भीतर की खामियों को उजागर करती है।

असमान प्रतिनिधित्व- चिंता का अन्य क्षेत्र उच्चतर न्यायपालिका की संरचना है। उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है, जबकि जाति संबंधी आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं।

न्यायिक नियुक्तियों में देरी- उच्चतर न्यायपालिका के लिये कॉलेजियम द्वारा सिफारिशों में देरी के कारण न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया में देरी हो रही है।COVID-19 के बादतो इस प्रक्रिया का पालन करके नियुक्तियों को संभव बनाया जाना और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है ।

गैर संवैधानिक व्यवस्था – कॉलेजियम एक अतिरिक्त-संवैधानिक या गैर-संवैधानिक निकाय है जिसे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों द्वारा लागू किया गया है जो वस्तुतः न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में सरकार और राष्ट्रपति की शक्ति को छीन रहा है।

भारत के संविधान ने भारत के राष्ट्रपति को अंतिम शक्ति दी है।लेकिन न्यायालय के साथ अनिवार्य परामर्श दिया। ये निर्णय सरकार के साथ परामर्श करने के लिए न्यायालय को शक्ति देता है।

स्रोत – The Hindu