क्या मानवतावाद, दुनिया की तबाही का कारण है


सामान्य तौर पर यदि आप किसी भी पढ़े लिखे व्यक्ति से बात करिए तो वह कहेगा, “मैं मानवतावादी हूँ, मानवाधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए, मानव ईश्वर की सबसे अद्भुत कृति है “… 

मैं इस विषय पर बिल्कुल अलग तरह से सोचता हूँ। मानवाधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए, सभी मानवों का सम्मान भी किया जाना चाहिए।

मैं भी मानव हूँ, मानव ईश्वर की अद्भुत रचना है, बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य ही मानव का विकास है…

लेकिन मैं मानवतावादी, समाजवादी, पूंजीवाद जैसा कोई वादी नही हूँ, बल्कि स्वयं को इस महान प्रकृति का छोटा सा हिस्सा मानता हूं। 

मानवतावाद से मेरी समस्या यह है कि सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में उदित हुई मानवतावाद एक ऐसी विचारधारा हैं जो चर्च के पाखंड की वजह से पनपी थी। क्योंकि चर्च के अनुसार मानव एक पापी प्राणी है, इसीलिए चर्च मानवों को दीन हीन मानती थी।

इसीलिए जब मानवतावाद का जन्म हुआ तो इसका अर्थ था “ईश्वर के स्थान पर मानव की सर्वोच्चता”…. अर्थात मानवतावाद का मूल यह है कि ईश्वर नही बल्कि मानव श्रेष्ठ है … 

आरंभ में इससे एक क्रांति सी आ गई, ज्ञान विज्ञान का तीव्र विकास हुआ।नए नए विचारों और दर्शन का जन्म हुआ। 

एक ऐसे मानव का जन्म हुआ जो जोखिम उठाने के लिए तैयार था, गहरे समुद्रों में उतरकर दुनिया का चक्कर लगा सकता था। ऐसा लगने लगा कि अब मानवता पूर्णता प्राप्त कर लेगी।

लेकिन क्या यह स्वप्न पूरा हुआ ? नही, बल्कि कुछ समय में इसके घातक परिणाम आने लगे। अब मुद्दा यह बन गया कि “कौन मानव ईश्वर की श्रेणी में आएगा .. तो वही मानव ईश्वर की श्रेणी में आ सकता था जिसके पास जितनी ज्यादा शक्ति थी, जो जितना दूसरों का दमन कर सकता था। 

और इसी के साथ जन्म हुआ उपनिवेशवाद और शोषण का । अब मानवतावाद के पोषक यूरोपियन ने पूरी दुनिया को मानवता का पाठ पढ़ाने का जिम्मा उठाया, दूसरों को बर्बर और अमानवीय बताया … 

इस मानवतावाद ने अमेरिका के रेड इंडियन को पूरी तरह खत्म कर दिया, अफ्रीका के लोगों को गुलाम बना कर बेच दिया, भारत का शोषण किया। 

मानव के ईश्वर बनने की इसी सनक ने दो दो विश्व युद्ध कराए। मानवता को तहस नहस कर दिया  …. 

मानवतावाद केवल यहीं नही रुका बल्कि इसने पूरी पृथ्वी को तबाह कर दिया। आज यदि हम जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रहे हैं तो उसकी उत्तरदायी भी मानवतावादी अथवा उपभोक्तावादी विचारधारा है …

क्योंकि मानवतावाद ने बताया कि यह प्रकृति हमारे शोषण और उपभोग का साधन है क्योंकि हम ही ईश्वर है  ..

हमने सारे जीवों के जीवन को बर्बाद कर दिया, हजारों प्रजातियां विलुप्त हो गई, लाखों विलुप्त होने की कगार पर है  … 

क्योंकि आरंभ में मानवतावादियों का मानना था कि शेर बाघ या अन्य मांसाहारी जीव जीने योग्य नही है बल्कि ये मानवता के खिलाफ है।इसीलिए उनका जमकर शिकार किया गया।

जब मानवता बिल्कुल तबाही के मुहाने पर आ गई तब हमारी आंखे खुली कि नही सारे जीवों का इस पृथ्वी पर समान अधिकार है, हम ईश्वर नही है, बल्कि बाकी प्राणियों की तरह हम भी एक प्राणी है उससे ज्यादा नही।

वास्तविकता तो यह है कि व्हेल, शार्क मछली आदि हमसे कई गुना ज्यादा दिमाग रखती हैं,उनके भी परिवार और समाज होते हैं। बल्कि अनेक प्राणी हमारे बराबर ही समझदार हैं .. 

बस हमारे अंदर कुछ ऐसी चीजें विकसित हो गई जो दूसरों के अंदर नही है, जैसे हाथों का प्रयोग करने की कला और उन चीजों के बारे में सोचने की शक्ति जो वास्तव में नही है, अर्थात हम वर्चुअल रियलिटी क्रिएट करते हैं। और यही हमारी सबसे बड़ी ताकत है।

इसीलिए हम सबसे आगे निकल गए, लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि हम इस पृथ्वी और ब्रह्मांड के स्वामी हो गए। 

यदि अन्य जीवों का अस्तित्व नही रहेगा तो हम भी समाप्त हो जाएंगे … हम इस अनन्त ब्रह्मांड के एक छोटे से यलो स्टार के छोटे से ग्रह पर रहने वाले धूल के कण के समान है …. 

इस अनन्त ब्रह्मंड में कितनी जगह हमसे ज्यादा विकसित जीवन हो सकता है इसकी कल्पना भी नही की जा सकती है …. अतः यदि हमें अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो इस महान प्रकृति और अन्य जीवों को सिर्फ सम्मान ही नहीं देना होगा बल्कि उन्हें अपने बराबर मानना होगा।

और मैं इसीलिए मानवतावाद को नही मानता हूं, और महान प्रकृति पर विश्वास रखता हूँ ।

लेखक: ध्रुव कुमार