जून 1975 का आपातकाल: भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय


“ये क्रांति है मित्रों… और सम्पूर्ण क्रांति।”, 25 जून 1975 को नई दिल्ली के रामलीला मैदान से ये शब्द जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहे तो पूरा मैदान उनके समर्थन में उठ खड़ा हुआ। क्रांति का ये विचार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के संसदीय निर्वाचन के विषय मे दिए गए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के आलोक में आया था।

दरअसल 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन सिन्हा ने समाजवादी नेता राजनारायण द्वारा दायर की गई एक याचिका पर फैसला सुनाया… इस फैसले के तहत इंदिरा गांधी को अगले 6 वर्षों तक किसी भी विधायी चुनाव को लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया गया था। उन पर आरोप था कि उन्होंने 1971 में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव के दौरान अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली को जीतने के लिए तरह-तरह की धांधलियां की। इसमें 50 हजार रूपये देकर स्वामी अवैतानंद को उम्मीदवार बनवाना, डीएम और एसपी को अनुचित कार्य के लिए कहना और मतदाताओं को दारू-रूपया बाँटना आदि शामिल थे।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष एकजुट हो गया। देश भर में उनके विरुद्ध धरना-प्रदर्शन होने लगे। इंदिरा के खिलाफ होने वाले विरोध प्रदर्शनों के क्रम में 22 जून को जयप्रकाश नारायण को दिल्ली आना था मगर ऐन वक्त उनके विमान को उड़ने की इजाजत न दी गयी। इसके बाद जेपी 23 जून को दिल्ली पहुँचते है। इसी बीच इंदिरा गांधी द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विरुद्ध दायर की गई याचिका का फैसला भी 25 जून 1975 को आ जाता है। इस फैसले के तहत इंदिरा गांधी के विरुद्ध दिए गए आदेश को सशर्त स्थगित कर दिया गया। इसके साथ ही इंदिरा गांधी को मताधिकार से वंचित कर दिया गया।

इंदिरा गांधी को कोर्ट के इस आदेश से अपनी राजनीति का भविष्य चौपट होते दिख रहा था। इधर जेपी ने भी 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान से ये अपील कर दी थी कि आप सभी इंदिरा सरकार से असहयोग करिये। अपने खिलाफ लगातार बिगड़ते माहौल को भांपते हुए इंदिरा गांधी देर रात तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद से मिली और उन्हें इस बात के लिए तैयार किया कि वो देश मे राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर दें। राष्ट्रपति महोदय ने देश मे राष्ट्रीय आपातकाल लागू भी कर दिया।

इसके अगले दिन यानी 26 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी से ये घोषणा की-

“भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।”

इस घोषणा के बाद देश का शासन स्वरूप लोकतांत्रिक से तानाशाही प्रवृत्ति का हो गया। इंदिरा सरकार अपने अलग-अलग निर्णयों से लगातार लोकतंत्र की आत्मा कुचलते जा रही थी। सत्ता पक्ष के चाटुकार मीडिया संस्थानों को मिलने वाले विज्ञापन की दरें बढ़ा दी गयी थी। इंदिरा के खिलाफ खबर लिखने वाले मीडिया संस्थान के प्रमुखों, उनके संपादकों को जेल में डाल दिया गया था। इंदिरा ने अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए इस कदर होमवर्क किया था कि उन्होंने दिल्ली के बहादुरशाह मार्ग में स्थित मीडिया संस्थानों की बिजली पहले ही काट दी थी ताकि लोगों तक आपातकाल के काले अध्यायों की खबरें न पहुँच सकें।

हालांकि एक अखबार मदरलैंड ने इंदिरा सरकार के फैसले के खिलाफ दो पेज का परिशिष्ट छापा। इसमें आपातकाल के दौरान गिरफ्तार हुए विभिन्न नेताओ का विवरण और आपातकाल के दौरान छीने जाने वाले अधिकार के सम्बंध में जानकारी थी। चूंकि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होता है। इसलिए इंदिरा सरकार ने इस माध्यम का अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए इस्तेमाल किया। मीडिया पर सेंसरशिप लागू कर दी गयी। सरकार के पक्ष में माहौल बनाने वाली खबरों को ही जनता तक पहुँचने दिया गया। मीडिया पर सेंसरशिप के अलावा इस आपातकाल के द्वारा संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों को भी आम जनता से छीन लिया गया।

अनुच्छेद 352 के तहत देश पर आरोपित किये गए इस राष्ट्रीय आपातकाल के तहत अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रदत्त ‘जीवन जीने के अधिकार’ के साथ ही अनुच्छेद 14 के तहत प्रदत्त ‘विधि के समक्ष समता के अधिकार’ को भी आम जनता से छीन लिया गया। इस आंतरिक आपातकाल के दौरान 25000 नेताओं पर मीसा यानी आंतरिक सुरक्षा अधिनियम लगाया गया और बिना सुनवाई के ही 1 लाख से अधिक लोगों लोगों की गिरफ्तारियां भी हुई।

‘हम, भारत के लोग’ की भावना को आत्मसात किये हुए भारतीय लोकतंत्र की परिणति ‘हम, इंदिरा गांधी के लोग’ में हो गयी थी। संविधान के द्वारा संचालित होने वाला भारत देश इंदिरा गांधी द्वारा संचालित होने लगा था। संवैधानिक भारत अब एक पुलिस स्टेट में तब्दील हो चुका था। लोगों की आवाज अब पूरी तरह से दबाई जा चुकी थी। कुलजमा ये कह सकते है कि 28 साल पहले आजाद हुए लोकतंत्र की महक को इंदिरा गांधी के एक फैसले ने बदबूदार बना दिया था।

मगर एक जीवंत लोकतंत्र को कब तक तानाशाही की सलाखों के पीछे कैद किया जा सकता है?

आपातकाल के लागू होने के लगभग 21 महीने बाद 21 मार्च 1977 के दिन राष्ट्रीय आपातकाल को खत्म होने की घोषणा होती है। इसके साथ ही उन तमाम प्रतिबंधों को भी हटा लिया जाता है जो आपातकाल के दौरान आम जनता, मीडिया और अन्य संस्थानों पर लगाएं गए थे।

देश में कभी ऐसे हालात दोबारा न दोहराएं जाएं… इसके लिए हम इस आपातकाल से कुछ सबक भी ले सकते है।

भारत के लोकतंत्र के तीन आधारभूत स्तम्भ यानी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र में अपना काम करती रहें। शक्ति के पृथक्करण सिद्धांत का पूर्णतया पालन करें जिससे कि कभी-कभी एक स्तम्भ में शक्ति का केंद्रीकरण न होने पाएं। इसके साथ ही मीडिया को भी सरकार की स्वस्थ आलोचना का अधिकार होना चाहिए। इससे कार्यपालिका और अधिक जवाबदेही बनती है और देश का शासन एकदम व्यवस्थित तरीके से जनता के हित मे संचालित होता है।

संकर्षण शुक्ला