प्रिय भारतीय रेलवे


मुस्कान रहित नमस्कार आपको। पिछले सात घण्टे से ट्रेन का इंतज़ार करते-करते चेहरे पे बारह बजने को आ गए है। जैसे पूरब(परदेस) जाने वाले अपने साजन के विरह में सजनी विदेसिया गाती है, उसी तरह हम यात्री भी अपनी धुंक-धुंक बलम ट्रेन के इंतजार में ‘टिरेनिया’ गा रहे है।

सुनने में आया है कि आज 52 ट्रेनें लेट है। अरे देवी! चार ट्रेन और लेट करके 56 का शुभ कर देते। 56 अंक तो हिंदुस्तान का भाग्य है। शायद रेलवे इसी अंकपूर्ति के इंतज़ार में है कि ये कोरम पूरा हो और हम लेटलतीफी मुक्ति का रेलवे फीता काटें।

घर से पसेरी भर का मेकअप पोत के आएं चेहरे अब मुरझा गए है, आँखों के आईलाइनर मारे पसीने के बहे जा रहे है, गमकौव्वा पाउडर की खुश्बू को भी रेलवे पटरी पे मरे हुए चूहे की दुर्गंध का सामना करने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। इतने पे भी जो आप न पिघली तो आप देवी रेलवे नही बल्कि शिला रेलवे है।

यात्रियों को होने वाली तमाम असुविधाओं के बीच आप मेज़ वाले दुकानदारों और चलतू-फ़िरतू दुकानदारों का खूब फ़ायदा करवा रही है। कुरकुरे और टकाटक की लड़ी अपनी पीठ पे लादे ये दुकानदार शायद मन ही मन मनाते भी होंगे कि ट्रेन और लेट हो जाएं ताकि इनकी बिक्री में कुबेर लग जाएं।

छोटे बच्चे अपनी तोतली आवाज़ में पूंछ रहे है कि मम्मा, ट्लेन कब आएगी। मम्मा हर बार की तरह यही जवाब दे रही है कि बेटा बस ट्रेन आने वाली है। इतने पर छोटे बच्चों को कहां चैन आने वाला है।

ये बच्चे कभी सिर मुड़ाये हुए एक चाँद की खोपड़ी को टनटना आते है तो कभी किताब पढ़ने में मशगूल किताबनवीस की किताब को अचानक से छीनकर ज़मीन पे पटक देते है। इतने पे चैन न मिलता है तो अपने साथी चुन्नू-मुन्नू से ही मार-पीट कर लेते है।

नयनसुखलाल तब से अपनी आँख सेंके जा रहे है। दुकानदारों के बाद ये दूसरी प्रजाति है जो ट्रेन की लेटलतीफी से खुश होती है। नायनसुखलाल कुर्सी पे अपने बगल वाली जगह में बैग रख देते है और सीट लेने की इच्छा लिए आने वाले हर पुरूष को ये बताते है कि बैगवाला पेशाब करने गया है। उसी सीट के लिए जब महिला इनसे पूँछती है तो ये सहर्ष उसको सीट देकर बैग को अपनी जांघों पे बिठा देते है।

नयनसुखलाल की एक्सटेंशन प्रजाति है छुआछुईचंद। ये छुआछुईचन्द्र अपने को गांधी जी का सच्चा फॉलोवर बताते है।इनका कहना है कि ये मनभावन यात्रियों को अनचाहा स्पर्श कर बापू जी के ‘अस्पृश्यता उन्मूलन’ का समर्थन करते है। किसी के शरीर के मांस को छूकर ये इतना आनंदित होते है मानो इनका शरीर प्लास्टिक का बना हुआ है।

भारतीय रेलवे, आपको पूरे प्लेटफॉर्म की झांकी हमने इस वज़ह से दिखाई ताकि आपकी शिथिल हो चुकी संवदेनाओं में कुछ तो उबाल आएं। निःसन्देह ट्रेन के भीतर का तो आपका सुरक्षा घेरा पहले से काफ़ी बेहतर हुआ है। मग़र यहां तो ट्रेन के भीतर ही पहुंचने की बारी का इंतज़ार हो रहा है। अवल्ल तो ट्रेन को देखने के लिए ही सबके नैना बेक़रार है।

वर्तमान सरकार के बीजमंत्र ‘मैक्सिमम गवर्नेंस’ को आप भी अपनी कार्यप्रणाली में शामिल कर लीजिए, भारतीय रेलवे। इतनी अरज तो सुन लो ओ मेरी रेलवे मैय्या।

खो चुकी मुस्कान के साथ,
एक यात्री।

संकर्षण शुक्ला