संविधान की प्रस्तावना पर विवाद


चर्चा में क्यों ?

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल दो शब्द समाजवाद और पंथनिरपेक्षता को हटाने से जुड़ी एक जनहित याचिका की सुनवाई 23 सितंबर से सुप्रीम कोर्ट में आरंभ हुई है।

प्रमुख बिन्दु

भारतीय संविधान में शामिल पंथनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द आरंभ से ही विवादित हैं ।

इन शब्दों को हटाने से जुड़ी एक याचिका दो साल पहले दिसंबर 2020 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी। इसके याचिकाकर्ता बीजेपी नेता डॉ सुब्रमण्यम स्वामी और सुप्रीम कोर्ट के वकील सत्या सभरवाल हैं।

यह जनहित याचिका सोशलिस्ट और सेक्युलर (‘समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष’) इन्हीं दो शब्दों को प्रस्तावना में जोड़े जाने की वैधानिकता को चुनौती देती है।

सुब्रमण्यम स्वामी और सत्या सभरवाल का कहना है कि “संविधान सभा कभी भी इन दो शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करने के पक्ष में नहीं था। वहीं ये 44 साल पुराने केशवानंद भारती केस के उस ऐतिहासिक फैसले का उल्लंघन है, जो कहता है कि संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता।”

पुराना विवाद

यह पहली बार नहीं है जब कोर्ट के सामने ऐसी कोई याचिका प्रस्तावित की गई हो या संसद में संविधान की प्रस्तावना में शामिल इन दो शब्दों को हटाने की मांग उठी हो।

साल 2008 में कोलकाता के एक एनजीओ “गुड गवर्नेंस फाउंडेशन” ने भी प्रस्तावना से समाजवादी शब्द को हटाने से जुड़ी एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी।

उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि ‘समाजवाद’ शब्द का अर्थ “नागरिकों के लिए कल्याणकारी उपाय” है और इसकी व्याख्या कम्युनिस्टों द्वारा दी गई परिभाषा के रूप में नहीं की जानी चाहिए।

वर्ष 2021 में बीजेपी सांसद केजे अल्फोंस ने राज्यसभा में प्राइवेट मेंबर बिल लाकर प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ शब्द हटाने का प्रस्ताव पेश किया था। वहीं साल 2020 में बीजेपी सांसद राकेश सिन्हा ने भी ऐसी ही मांग करते हुए राज्यसभा में एक प्रस्ताव पेश किया था ।

साल 2015 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने अपने विज्ञापन में संविधान की संशोधित प्रस्तावना की जगह एक पुरानी प्रति का इस्तेमाल किया था, जिसमें सोशलिस्ट और सेक्युलर (‘समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष’) शब्द नहीं थे।

तत्कालीन कानून मंत्री रवि संकर प्रसाद ने सरकार का बचाव करते हुए कहा कि “ये शब्द इमरजेंसी के दौरान प्रस्तावना में जोड़े गए थे। हमने देश के सामने मूल प्रस्तावना की प्रति पेश की है।”

संविधान की प्रस्तावना

संविधान की प्रस्तावना यह बताती है कि संविधान का मूल उद्देश्य क्या है।ये किन सिद्धांतो पर आधारित है और इसके माध्यम से हमने एक कैसे समाज, राज्य या देश की परिकल्पना की है।

प्रस्तावना संविधान की आत्मा है, उसका सार तत्व है और जो बातें प्रस्तावना के अनुरूप नहीं हैं उन्हें मोटे तौर पर संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल माना जाता है।

भारतीय संविधान की प्रेरणा

भारतीय संविधान की प्रस्तावना की प्रेरणा अमेरिकी संविधान से ली गई है। जैसे अमेरिका के संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत ‘वी द पीपुल ऑफ यूनाइटेड स्टेट्स’ से होती है, वैसे ही भारत के संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत ‘वी द पीपुल ऑफ इंडिया’ यानी ‘हम भारत के लोग’ से होती है।

इसके अलावा प्रस्तावना में शामिल तीन शब्द ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुता’ को फ्रांस के संविधान से लिया गया है।

प्रस्तावना के पांच शब्द प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, सेक्युलर, लोकतंत्रात्मक, गणराज्य संविधान के स्वरूप की ओर इशारा करते हैं। ये बताते हैं कि भारत एक समाजवादी, सेक्युलर, लोकतांत्रिक और गणतंत्र राष्ट्र है।

वहीं अंतिम चार शब्द (न्याय,समानता,स्वतंत्रता और बंधुता ) ये दर्शाते हैं कि यह देश के सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वंत्रता, समानता और बंधुता को सुरक्षित रखता है।

मूल संविधान में पंथनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द क्यों नहीं जोड़े गए थे

प्रोफेसर के.टी शाह ने 15 नवंबर,1948 को संविधान सभा से प्रस्तावना में तीन शब्द – सेक्युलर, संघीय और समाजवादी को शामिल करने की मांग की थी, लेकिन कई अन्य सदस्यों के साथ ही डॉ भीम राव अंबेडकर ने भी इसे प्रस्तावना में शामिल करने से इनकार कर दिया।

बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने इसके पीछे की दो मुख्य वजहें गिनाईं

प्रथम राज्य की नीति क्या होनी चाहिए, समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष में कैसे संगठित किया जाना चाहिए, यह ऐसे मामले हैं जो समय और परिस्थितियों के अनुसार लोगों को स्वयं तय करने होंगे।

इसे संविधान में ही निर्धारित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के ख़िलाफ है।

दूसरा भारतीय संविधान के भाग IV में राज्य के कुछ नीति निर्देशक सिद्धांतों का उल्लेख है जो पूरी तरह समाजवादी सिद्धांतों पर आधारित है। इसलिए अलग से संविधान की प्रस्तावना में इसे शामिल करना ग़ैर-ज़रूरी है।

प्रस्तावना में कब शामिल हुए समाजवादी पंथनिरपेक्ष शब्द

प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्युलर, शब्द संविधान के 42वें संशोधन के ज़रिए साल 1976 में जोड़े गए थे। तत्कालीन कानून मंत्री एच.आर. गोख़ले ने इस संशोधन को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पेश किया था।
तब अधिकांश विपक्षी नेता सलाखों के पीछे थे और प्रेस को आपातकाल के नियमों के तहत सेंसर कर दिया गया था।

इस संशोधन के पीछे यह तर्क दिया गया था कि देश को धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर विकसित करने के लिए इन संशोधनों की ज़रूरत है।

वहीं आलोचक का कहना हैं कि इंदिरागांधी का यह कदम उनके पॉलिटिकल पोस्चरिंग का हिस्सा था। वे समाजवादियों को खुश और मुस्लिम वोट बैंक को मज़बूत करना चाहती थीं।

प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है अथवा नहीं

संविधान सभा ने प्रस्तावना को संविधान का एक अहम हिस्सा माना था, लेकिन साल 1960, ‘बेरुबाड़ी यूनियन केस’ में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है।

1964, ‘सज्जन सिंह बनाम गर्वनमेंट ऑफ राजस्थान’ केस में जस्टिस मधोलकर ने बेरुबाड़ी यूनियन मामले में सुप्रीम कोर्ट की दी गई राय पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत को रेखांकित किया।

आख़िरकार साल 1973 के ‘केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल’ मामले में मुख्य न्यायधीश एस.एम सिकरी की अध्यक्षता वाली 13 जजों की बेंच ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए ये माना कि प्रस्तावना संविधान की ही एक हिस्सा है।

प्रस्तावना में जुड़े इन दो शब्दों को यदि हटाया जाए तो क्या असर होगा

संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि “इसका कुछ ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि इन शब्दों के हट जाने से भी संविधान की मूल भावना नहीं बदलेगी।”

संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं, ”भारत के संविधान के अनुच्छेद 243, 246 और 248 के अनुसार संविधान में संशोधन का अधिकार केवल और केवल संसद को है। दोनों ही सदनों में से किसी भी एक में, संविधान संशोधन विधेयक लाकर, विशेष बहुमत के साथ संशोधन किया जा सकता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट चूंकि फाइनल कोर्ट ऑफ अपील है, इसलिए वे चाहे तो फैसला कर सकती है। ”

धर्मनिरपेक्षता का इतिहास

धर्मनिरपेक्षता एक जटिल और आधुनिक अवधारणा है। इस अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम यूरोप में किया गया, जब फ्रांसीसी क्रांति के बाद चर्च और राज्य के बीच पूर्ण पृथक्करण की अवधारणा का जन्म हुआ।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य राजनीति या किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखेगा तथा धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव नही करेगा।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है, बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है।

भारत में धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक स्थित

भारतीय परिप्रेक्ष्य में संविधान के निर्माण के समय से ही इसमें धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा निहित थी जो सविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद-25 से 28) से स्पष्ट होती है।

भारतीय संविधान में पुन: धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए 42 वें सविधान संशोधन अधिनयम, 1976 द्वारा इसकी प्रस्तावना में ‘पंथ निरपेक्षता’ शब्द को जोड़ा गया।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता तथा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता के बीच अंतर

पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता का उदय चर्च और राज्य के बीच संघर्ष से हुआ है क्योंकि मध्यकाल में चर्च के पास असीमित शक्तियां थीं और वह जनता के शोषण का माध्य्म बन गया था ।

परिणामस्वरूप फ्रांसीसी क्रांति के बाद जब चर्च की सत्ता का पतन हुआ तो राज्य और धर्म को पूरी तरह से पृथक कर दिया गया।

अतः राज्य धर्म के किसी मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। वही धर्म भी राज्य के मामले में दखल नहीं कर सकता है।

वहीं भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता पूरी तरह से अलग है क्योंकि हमारे देश में प्राचीन काल से ही कई सम्प्रदाय एक साथ सहिष्णुता के साथ रहते आए हैं। इसी के परिणामस्वरूप हमारे देश में सामासिक संस्कृति का जन्म हुआ। अतः भारतीय धर्मनिरपेक्षता समानता पर आधारित है। अर्थात राज्य सभी धर्मों के साथ समानता का व्यवहार करेगा।

अतः पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का पूर्णत: नकारात्मक एवं अलगाववादी स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, वहीं भारत में धर्मनिरपेक्षता का सकारात्मक रूप प्रचलित है। यह समग्र रूप से सभी धर्मों का सम्मान करने में विश्वास करती है।

धर्मनिरपेक्षता का सकारात्मक पक्ष

धर्मनिरपेक्षता की भावना एक उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है जो ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना से परिचालित है।

धर्मनिरपेक्षता सभी को एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य करती है।

इसमें किसी भी समुदाय का अन्य समुदायों पर वर्चस्व स्थापित नहीं होता है।

यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करती है तथा धर्म को राजनीति से पृथक करने का कार्य करती है।

धर्मनिरपेक्षता का लक्ष्य नैतिकता, मानव कल्याण, आधुनिकता को बढ़ावा देना है ।

धर्मनिरपेक्षता का नकारात्मक पक्ष:

आलोचकों का कहना है कि ” संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता को जोड़कर देश में धर्मनिरपेक्षता के पश्चिमी मॉडल को जबरन थोप दिया गया है।

इस धर्मनिरपेक्षता की जड़े ईसाइयत में हैं और इसका भारतीय संस्कृति और समाज से कोई सम्बंध नही है।भारतीय समाज स्वमेव सभी सम्प्रदायों का सम्मान करता है।

धर्मनिरपेक्षता पर धर्म विरोधी होने का आक्षेप भी लगाया जाता है जो लोगों की विशेषकर बहुसंख्यक समाज की धार्मिक पहचान के लिये खतरा उत्पन्न करती है।

भारत में राज्य पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि राज्य बहुसंख्यकों के मामलों में तो हस्तक्षेप करता है लेकिन अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करता है और वोटबैंक की राजनीति को बढ़ावा देता है।

इसके अलावा धर्मनिरपेक्षता को कभी-कभी अति उत्पीड़नकारी रूप में भी देखा जाता है जो समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता में अत्यधिक हस्तक्षेप करती है।