जम्मू-कश्मीर में नई मतदाता सूची बनाने को लेकर विवाद


चर्चा में क्यों?

केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में मतदाता सूची में संशोधन को लेकर विवाद पैदा हो गया है।

प्रमुख बिन्दु

जम्मू कश्मीर में पिछले महीने 15 सितंबर से नए मतदाताओं के रजिस्ट्रेशन, नाम हटाने, सुधारने और जगह छोड़कर जा चुके या मर चुके मतदाताओं के नाम हटाने को लेकर विशेष संशोधन प्रक्रिया अपनी रफ़्तार से चल रही है।

लेकिन मंगलवार को ।

11 अक्टूबर को जारी किए गए आदेश जिसमें जम्मू ज़िला प्रशासन की ओर से जारी किए गए एक आदेश में कहा गया कि पिछले एक साल से जो लोग जम्मू जिले में रह रहे हैं वो मतदाता सूची में अपना नाम शामिल करवा सकते हैं। इसे लेकर राजनीतिक विवाद पैदा हो गया है।

इसके बाद कश्मीर घाटी के सभी क्षेत्रीय विपक्षी दलों ने इसकी कड़ी आलोचना की है।

आरोप है कि यह निहित स्वार्थों से प्रेरित हैं। साथ ही राजनीतिक दलों ने ज़िला प्रशासन पर पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता न होने के आरोप भी लगाए।

इस सख़्त प्रतिक्रिया के बाद जम्मू जिला उपायुक्त अवनी लवासा ने ये आदेश वापिस ले लिया।

इससे पहले मतदाता सूची अपडेट करने पर जम्मू कश्मीर के मुख्य निर्वाचन अधिकारी हृदेश कुमार सिंह के बयान के बाद कश्मीर की सियासी पार्टियां लामबंद हो गई थीं।

चुनाव अधिकारी ने इस प्रक्रिया में बाहरी राज्यों के मतदाताओं को शामिल करने की बात कही थी। इसके विरोध में क्षेत्रीय दलों ने आपत्ति दर्ज करवाते हुए चुनाव आयोग के फैसले का विरोध किया था।

बाद में चुनाव आयोग ने सर्वदलीय बैठक बुला कर सभी सियासी पार्टियों की चिंता दूर की थी।

आदेश में क्या था

जम्मू ज़िला उपायुक्त की ओर से जारी आदेश के अनुसार, विशेष संशोधन प्रक्रिया के दौरान जम्मू ज़िले में मतदाताओं का रजिस्ट्रेशन सुनिश्चित करने के लिए ‘सभी तहसीलदारों को जरूरी फील्ड वेरिफिकेशन करनी है।

इसके बाद उन लोगों को आवास प्रमाण पत्र जारी करने के लिए अधिकृत किया गया है, जो एक साल से ज्यादा समय से जम्मू जिले में रह रहे हैं।

आदेश में उन दस्तावेजों की सूची भी जारी की है, जिन्हें निवास के प्रमाण के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है।

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर फोटो मतदाता सूचियों के विशेष सारांश संशोधन का कार्य 15 सितंबर से जारी है, जो 25 अक्टूबर तक जारी रहेगा।

इस बैठक में सभी जिलों के अधिकारियों को इस प्रक्रिया में तेजी लाने के निर्देश दिए थे।

अब तक लगभग छह लाख नागरिकों ने अपना वोट बनवाने के लिए आवेदन किया है। इनमें से कितने नागरिकों के वोट रजिस्टर होंगे ये पूरी प्रक्रिया के खत्म होने पर ही पता चलेगा।

आधिकारिक सूत्रों का कहना है की जम्मू ज़िले से अब तक 50 हज़ार से आस पास आवेदन हासिल हुए हैं।

क्यों हो रहा है विरोध

कश्मीर घाटी के विपक्षी दलों को डर है कि अगर जम्मू-कश्मीर में ‘सामान्य रूप से रहने वाले’ लोग बड़ी संख्या में मतदाता सूची में जगह पा गए तो वे हमेशा के लिए इस क्षेत्र में मतदाताओं की गणितीय स्थिति को बदल देंगे।

जम्मू-कश्मीर में ‘सामान्य रूप से रहने वालों’ की संख्या का कोई आधिकारिक आंकड़ा माजूद नहीं है लेकिन अनुमान के मुताबिक जम्मू कश्मीर में बड़ी संख्या में बाहरी राज्यों से मजदूर और प्राइवेट सेक्टर में कर्मचारी बसे हुए हैं और अगर इनमें से अधिकतर लोग यहाँ अपने मत का इस्तेमाल करना चाहेंगे तो वे चुनावी तस्वीर बदल सकते हैं ।

पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने इस आदेश को डोगरा संस्कृति को झटका बताया।

वहीं, नेशनल कांफ्रेंस का कहना है कि जम्मू-कश्मीर में 25 लाख गैर-स्थानीय मतदाताओं को जोड़ने की योजना को आगे बढ़ाया जा रहा है

महबूबा मुफ्ती ने इसे ये डोगरा संस्कृति, पहचान, रोजगार और व्यवसाय को पहला झटका बताया है.

कांग्रेस का कहना है कि “ये स्थानीय मतदाताओं की शक्ति को कम करने की योजना है”

सरकार का पक्ष

-सरकार इसे संवैधानिक मूल्यों के अनुकूल बता रही है।

सरकार ने कहा है कि यह देश का कानून है जो 1950 में आया था और पीपुल्स रिप्रेजेंटेशन एक्ट 1951 जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद लागू हुआ था।

जम्मू-कश्मीर में मतदाताओं के पंजीकरण के लिए जो प्रक्रिया चल रही है वह सही है और संविधान के अनुसार है।

आम लोगों का कहना है कि इससे उन्हें लाभ होगा वे नागरिकों के रूप में सभी अधिकार पाने के हकदार हो जाएंगे।

वे भूलें, जिन्होंने धरती के स्वर्ग को जहन्नुम बना दिया …

भारत विभाजन और स्वतंत्रता के समय जब देश के अन्य भागों में हिंदू मुस्लिम के नाम पर हिंसा और हत्याओं का बोलबाला था और देश जल रहा था तब भी कश्मीर में शांति विद्धमान थी।

फिर आखिर इतिहास के किन लम्हों में वह गलती हो गई कि जब देश के अन्य भागों में शांति विद्धमान थी तब कश्मीर उठा और आज भी वह घाव रिस रहा है और इसकी सबसे बड़ी कीमत कश्मीरी पंडितों ने विस्थापन और नरसंहार के रूप में चुकाई।

जब सरदार पटेल ने देश की बाकी रियासतों को भारत में एकजुट किया तब जिन तीन रियासतों में समस्या आई उसमें हैदराबाद, जूनागढ़ के साथ कश्मीर भी एक था। देखा जाए तो कश्मीर के मामले में आरंभ से ही गलतियाँ होती रही ।

आरंभ में कश्मीर के राजा हरिसिंह अपनी रियासत को आजाद रखना चाहते थे इसीलिए उन्होंने आरंभ में भारत के साथ कश्मीर के विलय में हीलाहवाली की। बाद में जब राजा हरिसिंह और उनके प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन नेहरूजी से तत्काल विलय और सेना भेजने की मांग कर रहे थे तब भारत सरकार कश्मीर के आंतरिक प्रशासन में बदलाव और शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री बनाने की मांग कर रही थी जबकि ”लार्ड माउन्ट बेटन” कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने के पक्ष में थे और अंत में पाकिस्तानी आक्रमण के बाद अत्यंत विषम परिस्थितियों में कश्मीर का विलय भारत में किया गया। साथ ही भारत इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गया जिससे इस मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया व मुद्दा भारत पाकिस्तान का बन गया।

भारत सरकार के द्वारा अनुच्छेद 370 व 35A का प्रावधान कश्मीर को भारत से जोड़ने के लिए किया गया था लेकिन यह अलगाववाद का कारण बन गया। क्योंकि शेख अब्दुल्ला आरंभ से ही कश्मीर के लिए विशेष दर्जे की मांग कर रहे थे और आगे चलकर शेख अब्दुल्ला के व्यवहार और नीतियों में जो बदलाव हुआ उसी के चलते प्रधनमंत्री नेहरू को उन्हें जेल में डालना पड़ा।

पाकिस्तान जो आरम्भ से ही किसी भी कीमत पर कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने के लिए तैयार था। उसने कश्मीर में अलगाववादी व आतंकवादी तत्वों को बढ़ावा दिया।

1970 के दशक में अफगानिस्तान में तालिबान लड़ाकों की सफलता और ईरान में इस्लामी-क्रांति के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर में भी इस्लामिक कट्टरपंथ को बढ़ावा देना आरम्भ किया क्योकि इसे सफलता की कुंजी माना गया। कश्मीर की सूफ़ी संस्कृति को कट्टर बहावी विचारधारा से बदलने का प्रयास किया गया ।

‘जनरल जियाउल हक’ के काल में जब पाकिस्तान का इस्लामीकरण किया जा रहा था। उसी समय कश्मीर में कट्टरपंथी तत्वों को बढ़ावा दिया गया।

ISI ने ‘जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट’ (JKLF) के साथ मिलकर ऑपरेशन टोपाक’ चलाया जिसे (zia plan) भी कहा गया। जिसके तहत “सीमापार आतंकवाद को बढ़ावा देना, पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकियों को प्रशिक्षण देकर कश्मीर में भेजना, उग्रवाद, आतंकवाद को बढ़ावा देने के साथ भारत समर्थक लोगों व गैर मुसलमानों की ‘टार्गेट किलिंग’ करना शामिल था” ताकि कश्मीर को आजाद कराया जा सके।

फरवरी 1990 में कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के बारे में JKLF के नेता अमानतुल्लाह ने स्वयं स्वीकार किया था “यह एक दीर्घकालिक योजना थी और इसका आरम्भ 1986 में ही हो गया था”।

1987 में कश्मीर में हुए विधानसभा चुनाव में केंद्र की कांग्रेस सरकार व नेशनल कांफ्रेंस पर ‘चुनावी-धांधली’ के आरोप लगे।

इस चुनाव में भाग लेने वाले ‘मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट’ MUF के नेताओं ने चुनाव के बाद पूरे कश्मीर में हिंसात्मक प्रदर्शन किए जिसे पाकिस्तान ने इसे बढ़ावा दिया।

जमात ए इस्लामी, हुर्रियत, हिजबुल मुजाहिदीन जैसे संगठनों को पाकिस्तान ने आर्थिक व हथियारों से सहायता प्रदान की। इन संगठनों का उद्देश्य कश्मीर को आजाद ‘मुस्लिम रियासत’ बनाना था।

इस समय केंद्र में संयुक्त मोर्चा की सरकार थी जो कई मामलों में कमजोर साबित हुई ‘राबिया सईद अपहरण’ मामलें में सरकार को कई आतंकियों को छोड़ना पड़ा ।जबकि पाकिस्तान लगातार आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा था और सीमापार से आतंकियों को भेज रहा था जिन्होंने चुन चुनकर कश्मीरी पंडितों की हत्याएं आरम्भ कर दी जिससे धीरे-धीरे कश्मीर में स्थित भयावह होती गई।

पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने पाक अधिकृत कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद में खड़े होकर कट्टरपंथी तत्वों को प्रोत्साहित करते हुए कहा ” कश्मीर की अवाम मौत से नही डरती क्योंकि वे मुसलमान हैं।कश्मीर की अवाम की रगों में मुजाहिदों का खून है।”

उन्होंने आगे भड़काते हुए कहा “हर तरफ से एक ही आवाज बुलंद होगी आजादी, हर मस्जिद से एक ही आवाज निकलेगी आजादी, बच्चा बच्चा कहेगा आजादी”..

जबकि इधर गठबंधन पर टिकी कमजोर केंद्र सरकार व जम्मू कश्मीर की फारूक अब्दुल्ला सरकार में खींचतान व मदभेद विद्धमान थे । यह मतभेद तब अपने चरम पर पहुँच गया जब केंद्र सरकार ने कश्मीर की स्थित के मद्देनजर जगमोहन की राज्यपाल के रूप में नियुक्त करने का निर्णय लिया।

इसी मुद्दे पर फारूक अब्दुल्ला ने 17 जनवरी को इस्तीफा दे दिया और वे लंदन चले गए। जबकि राज्यपाल अभी तक जम्मू कश्मीर पहुँचे भी नहीं थे।

अतः कुछ समय के लिए कश्मीर में कोई सरकार ही नही थी । इस समय कश्मीर में अलगाववादियों व आतंकवादियों का बोलबाला था जिनका उद्देश्य 26 जनवरी तक कश्मीर को आजाद देश घोषित करना था।

19 जनवरी की उस काली रात को कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों के द्वारा घाटी में जुलूस निकाले गए जिसमे कश्मीरी पंडितों को कश्मीर घाटी छोड़ने का अल्टीमेटम दिया गया।

मस्जिदों ने नारे लगाए जा रहे थे “कश्मीर बनेगा पाकिस्तान हिंदू मर्दों के बिना और हिंदू औरतों के साथ”

इस काली रात को सैकड़ों कश्मीरी पंडितों की हत्याएं हुई, हजारों लोगों ने अपना घर छोड़ दिया। रातों-रात कश्मीरी पंडित विस्थापित बन गए। जिस जमीन पर उन्होंने जन्म लिया वह अब उनकी नही रह गई थी।

हालांकि बाद में भारत सरकार के द्वारा जम्मू कश्मीर में 1991 से 1996 तक राष्ट्रपति शासन लगाया गया और सेना के द्वारा “ऑपरेशन सर्पविनाश” चलाया गया जिसमें आतंकवादियों को चुन चुनकर मारा गया और अलगाववादियों की कमर तोड़ दी गई लेकिन यदि ये कदम पहले उठाए जाते तो शायद कश्मीरी पंडितों को यह नरसंहार और विस्थापन नही सहना पड़ता।

वर्तमान सरकार के द्वारा ऑपरेशन “आल आउट” व “ऑपरेशन कॉम डाउन” के द्वारा आतंकवाद की कमर तोड़ दी गई है, अनुच्छेद 370 व 35A को समाप्त करके कश्मीर को भारत के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया है और जम्मू कश्मीर के विकास के लिए अनेक योजनाओं को चलाया जा रहा है लेकिन आज भी कश्मीरी पंडित सुरक्षित अपनी घर वापसी की राह देख रहे हैं ।

महाराजा हरिसिंह

जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने हाल ही में महाराजा हरि सिंह की जयंती पर अवकाश घोषित करने की डोगरा संगठनों की लंबे समय से चली आ रही माँग मान ली।

मनोज सिन्हा ने उन्हें ‘महान शिक्षाविद, प्रगतिशील विचारक, समाज सुधारक और आदर्शों से युक्त शीर्ष व्यक्तित्व’ कहा है।

जम्मू के लोगों के लिए डोगरा वंश के अंतिम शासक उनकी खोई हुई आन-बान और शान का प्रतीक हैं, वहीं घाटी के बहुत सारे लोग डोगरा शासकों को उत्पीड़न के प्रतीक के तौर पर देखते हैं।

1846 में सोबराँव के ब्रिटिश-सिख युद्ध में पंजाब की महारानी ने गुलाब सिंह को सेनापति नियुक्त किया था, लेकिन युद्ध से अलग रहकर उन्होंने अँग्रेज़ों की मदद की, इसके बाद ‘अमृतसर संधि’ में 75 लाख नानकशाही रुपए देकर उन्होंने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख पर शासन करने का एकाधिकार हासिल किया था, इस समझौते को घाटी में अक्सर ‘अमृतसर बैनामा’ के नाम से जाना जाता है।

1925 में जब हरि सिंह गद्दी पर बैठे । ताजपोशी के बाद जिस तरह की घोषणाएँ उन्हें सचमुच क्रांतिकारी कहा जा सकता है।

पहले संबोधन में महाराजा हरि सिंह ने कहा, “मैं एक हिन्दू हूँ लेकिन अपनी जनता के शासक के रूप में मेरा एक ही धर्म है-न्याय। वह ईद के आयोजनों में भी शामिल हुए और 1928 में जब श्रीनगर शहर बाढ़ में डूब गया तो वह ख़ुद दौरे पर निकले।

उन्होंने आधुनिकीकरण की ओर बढ़ाए गए क़दम थे। मसलन, उनमें जम्मू, और कश्मीर घाटी में 50-50 तथा गिलगित और लद्दाख में 10-10 स्कूल खोलने का ऐलान किया, और उनके निर्माण के लिए लकड़ी वन विभाग से मुफ़्त दिए जाने की घोषणा की।

जम्मू और घाटी में तीन-तीन चल डिस्पेंसरियाँ खोलना, तकनीकी शिक्षा का विस्तार करना, श्रीनगर में एक अस्पताल खोलना, पीने के पानी की व्यवस्था करना उनके कई बड़े क़दमों में शामिल थे।

उन्होंने लड़कों के लिए विवाह की न्यूनतम उम्र 18 और लड़कियों के लिए 14 वर्ष कर दिया, इसके साथ ही, उन्होंने बच्चों के टीकाकरण का इंतज़ाम भी कराया।

उन्होंने किसानों की हालत सुधारने के लिए ‘कृषि राहत अधिनियम’ बनाया जिसने किसानों को महाजनों के चंगुल से छुड़ाने में मदद की।

शैक्षणिक रूप से अत्यंत पिछड़े राज्य में उन्होंने अनिवार्य शिक्षा के लिए नियम बनाए, सभी के लिए बच्चों को स्कूल भेजना ज़रूरी बना दिया गया, इसीलिए इन स्कूलों को लोग ‘जबरी स्कूल’ भी कहने लगे।

सबसे क्रांतिकारी घोषणा तो उन्होंने अक्टूबर 1932 में की जब राज्य के सभी मंदिरों को दलितों के लिए खोल दिए। यह घोषणा गाँधी के छुआछूत विरोधी आंदोलन से भी पहले हुई थी और शायद देश में पहली ऐसी कोशिश थी। कोल्हापुर के शाहूजी महाराज के अलावा इस तर्ज़ पर सोचने वाला राजा उस दौर में शायद ही कोई और था। यह इतना क्रांतिकारी निर्णय था कि रघुनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी ने इसके विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया था।

इसके पहले गोलमेज कांफ्रेंस में महाराजा ने जिस तरह भारतीयों के लिए ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ऑफ नेशंस में बराबरी के अधिकार की माँग उठाई थी और राजाओं को एक ऑल इंडिया फ़ेडरेशन में शामिल होने की अपील की थी उससे ब्रिटिश सरकार भी नाखुश थी।

लेकिन आजादी के बाद कुछ राजा हरिसिंह की निर्णय न लेने के कारण और कुछ भारत सरकार की गलतियों के कारण कश्मीर का मुद्दा लगातार पेचीदा होता चला गया।

राज्यपाल के बारे में

भारतीय संविधान का भाग 6 देश के संघीय ढांचे के महत्त्वपूर्ण हिस्से यानी राज्यों से संबंधित है। संविधान में अनुच्छेद 152 से 237 तक राज्यों से संबंधित विभिन्न प्रावधानों का उल्लेख किया गया है।

राज्य की शासन पद्धति भी संसदीय है। जिस प्रकार केंद्र में शासन प्रमुख रूप में राष्ट्रपति होता है, उसी प्रकार राज्यों में एक संवैधानिक प्रमुख की व्यवस्था की गयी है। राज्यों के इस संवैधानिक प्रमुख को राज्यपाल कहा जाता है।

वह राज्य की कार्यपालिका का प्रमुख होता है। राज्यपाल राज्य में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है इसके साथ ही राज्यपाल राज्य के संवैधानिक प्रमुख की भूमिका भी निभाता है।

राज्यपाल, उस राज्य में मंत्री परिषद की सलाह के अनुसार कार्य करता है। राज्यपाल अपने राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के कुलपति भी होते हैं। संविधान के 7 वें संशोधन 1956 के तहत एक राज्यपाल एक से अधिक राज्यों के लिए भी नियुक्त किया जा सकता है।

राज्यपाल के कार्य और अधिकार

  • एक राज्यपाल को राज्य के मुख्यमंत्री की नियुक्ति का अधिकार होता है। इसके अतिरिक्त वह राज्य के कई महत्वपूर्ण पदों पर जैसे राज्य के महाधिवक्ता, राज्य लोक सेवा आयोग अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों आदि की नियुक्ति करता है।

-राज्यपाल को विधान मंडल का सत्र बुलाने और समाप्त करने का अधिकार होता है। राज्य के मंत्री परिषद् की सिफारिश पर वह विधान सभा को भंग भी कर सकता है।

  • अनुच्छेद 175 के अनुसार एक राज्यपाल विधान सभा के सत्र को तथा जिस राज्य में दो सदन है उनके संयुक्त सत्र को संबोधित कर सकता है।

-यदि विधानसभा में एंग्लो इंडियन समुदाय का उचित प्रतिनिधित्व नहीं हुआ हो, तो राज्यपाल इस समुदाय से एक सदस्य को नामित कर सकता है।

  • राज्यपाल विधान परिषद वाले राज्यों में इस परिषद के कुल सदस्यों का 1/6 कला, विज्ञानं,साहित्य आदि क्षेत्रों से आने वाले विशिष्ट और अनुभवी लोगों को नामित करता है।
  • राज्य के विधानसभा से पारित किसी भी बिल पर राज्यपाल की सहमति जरूरी होती है। बिना उसके सहमति के कोई भी बिल पास नहीं हो सकता है।
  • राज्यपाल की सहमति प्राप्त होने के बाद ही राज्य का वार्षिक वित्तीय बजट विधानमंडल में पेश किया जाता है। इसके अतिरिक्त राज्यपाल की सहमति होने पर ही किसी अनुदान की मांग की जा सकती है।
  • अनुच्छेद 161 के अनुसार राज्य सूची के अंतर्गत आने वाले विषयों से संबंधित हुए अपराध में राज्यपाल अपराधी की सजा को कम, स्थगित या क्षमा कर सकता है।

उपराज्यपाल के बारे में

केंद्रशासित प्रदेश में आने वाली दिल्ली और पुड्डुचेरी और जम्मू और कश्मीर में दूसरे राज्‍यों की तरह अपनी विधान सभाएं हैं। यहां पर निर्वाचित सरकारें (वर्तमान में केवल दिल्ली और पुड्डुचेरी) होती हैं।

इन जगहों पर उप राज्यपाल का पद होता है, जो केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर शासन करता है। उपराज्यपाल को लेफ्टिनेंट गवर्नर या एलजी भी कहा जाता है।

वहीं अन्य सभी केंद्र शासित प्रदेशों में प्रशासक नियुक्त होते हैं।

उप राज्यपाल केंद्र शासित प्रदेश का मुख्य प्रशासक होता है। केंद्र सरकार इनके माध्‍यम से उस प्रदेश में शासन करती है। जहां राज्‍यों में शासन के सारे अधिकार मुख्यमंत्री के पास होते हैं, वहीं इन केंद्रशासित प्रदेशों में मुख्‍यमंत्री के सारे अधिकार उपराज्यपाल को मिले होते हैं।

जैसे- दिल्ली का उपराज्यपाल, यहां का संवैधानिक प्रमुख है। इस पद का सृजन पहली बार सितंबर 1966 में किया गया था।

भारतीय संविधान के भाग VIII के अंतर्गत अनुच्छेद 239-241 में केंद्र शासित प्रदेशों के संबंध में उपबंध हैं।

उपराज्यपाल के कार्य और अधिकार

  • एक उपराज्यपाल विधानसभा का सत्र बुलाने, विधानसभा का विघटन और स्थगन करना की जिम्मेदारी निभाता है।
  • उपराज्यपाल किसी भी मुद्दे पर या लंबित विधेयक पर राज्य विधान सभा को सन्देश भेजने का अधिकार रखता है। इस सन्देश पर हुई कार्यवाही की रिपोर्ट राज्य विधानसभा को उपराज्यपाल को देनी होती है।
  • अगर कोई बिल कर लगाने, हटाने, कर में छूट देने, वित्तीय दायित्वों से संबंधित कानून में परिवर्तन, राज्य की समेकित निधि के विनिमय आदि संबंध में हो। तो वह विधान सभा में बिना उपराज्यपाल की सहमती के पेश नहीं किया जा सकता।