दास्ताँ-ए-इंग्लिश-लैट्रिन


खुटुल्ले बाऊ परदेश जा रहे थे कमाने के वास्ते। सूरत जाना था उनको सो साबरमती एक्सप्रेस में टिकट करा लिए थे , भीड़-भड़क्का से बचने के लिए स्लीपर का टिकट करवाए थे। घर से एकदम नट्टी तक हुर के खाना चले थे ताकि सूरत से पहले खाने की सूरत न देखनी पड़े मगर बेतरतीब हुराई ने उनका कोठा गड़बड़वा दिया था। अभी मुश्किल से सौ किलोमीटर पहुंचे होंगे, पेट गड़गड़ाने लगे। फटाक से ट्रेन की लैट्रिन में पहुंचे।

मगर इ का लैट्रिन तो वेस्टर्न कमोड थी, जिसे खुटुल्ले बाऊ इंग्लिश पाखाना कहते थे। इंग्लिश लैट्रिन देखते ही खुटुल्ले बाऊ बैरंग लौट आये। मगर पेट में इतनी तेज पीड़ा हो रही थी कि बिना करे रहाइस नहीं मिलने वाली थी। सो मन पर चौरासी मन का पत्थर लेके दरबार-ए-पाखाना में दाखिल हुए। समस्या थी कि बैठे कैसे सो कुछ देर सोचे-विचारे। फिर कमोड के ऊपर उकडू होकर बैठ गए। अब जिस काम के लिए गए, वो भी न हो, क्योंकि उन्हें ऐसे करने की आदत न थी। 3 मिनट बाद धड़ाम से आवाज आयी और खुटुल्ले बाऊ आधा पाखाने के भीतर थे और आधा बाहर। किसी तरह उन्हें निकल-वुकाल के वापस गाँव में पार्सल किया गया।

इधर शिवमगन और गंगाबिशुन भौजाई अपने भांजे के जनेऊ-तिलक में शामिल होने के वास्ते लखनऊ गयी हुई थी। अपने गाँव के लोटिया सम्मेलन मने खुले परिक्षेत्र में होने वाले सामूहिक शौच कार्यक्रम की मुखिया है शिवमगन भौजाई। उन्हें खेतों से उतना ही प्यार है जितना शिवमगन और अपने बाड़े पूत जोखन से है। शाम को खा-पी के एकदम चौड़े होके भौजाई गोपी बहू देख रही थी। तभी पेट में हलचल हुई।

और भौजी धड़धड़ाते हुए पाखाने पहुँच गयी। मगर इ का हिया तो भौजी ने टीवी वाला कम्बोड देखा। माथे से पसीना चू रहा था, धड़कने तेज थी कि आज कैसे निपटेंगी। खैर! भौजी को धमाल फिलिम का स्टार्टिंग का शीन याद आ गया, जहाँ एक सज्जन वेस्टर्न कमोड में बैठे है और जावेद जाफरी उनके पीछे जेब में हाथ डाले नाक की घ्राण शक्ति का संतुलन बना रहे है। भौजी को फ़्लश का ज्ञान नहीं था, उन्हें लोटा ही सुहाता था और वही आता भी था। निपट-निपटा के बाहर आयी भौजी ने सिमरन किया कि जान बची तो लाखो पाएं।

सुनी-सुनाई बतकही के साथ
लेखक: संकर्षण शुक्ल