गुटखा


आहिस्ता-आहिस्ता किन्तु निश्चित मौत की नियति गुटखे की परम सत्ता है। मुँह चलाने और बांकेपन के शुरूर में एक व्यक्ति इसे अपनी आदतों में शुमार कर लेता है और ये आदत शीघ्र ही लत बन जाती है। अब लत आसानी से छूटने वाली चीज तो है नहीं । यहाँ भी लत प्राण-पखेरू उड़ने के साथ ही जा पाती है।


यूं तो इस बीमारी से हर वर्ष लाखों लोग मरते है किंतु आज ये प्रसंग इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अभी-अभी मोहल्ले में गुटखा खाने से होने वाले मुंह के कैंसर ने एक हँसते-खेलते परिवार के मुखिया की जीवनलीला समाप्त कर दीं।


कैंसर से होने वाली मौत भी सामान्य मौतों से बिल्कुल अलग होती है। देहत्यागी के पार्थिव शरीर के निकट संबंधी हृदय में गंभीर पीड़ा होने के बावजूद वो विलाप नहीं करते ; जो सामान्य मौत पर होता है। चूँकि इस बीमारी में इंसान तिल तिल के मरता है ; साथ में उसके निकटस्थ भी समांग रूप से पोर पोर मरते रहते है। जितने दिन बीमारी की मियाद रहती है उतने ही दिन प्रलाप और विषाद पूरे परिवार के साथ चलता रहता है। अलबत्ता इस विषाद की जद में उसके सगे-सम्बन्धियो का सम्पूर्ण जीवन ही आ जाता है।


व्यक्ति विशेष की मौत की भयावहता से लेकर उसके सगे-संबंधियों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का उपरोक्त वर्णन इसलिए किया कि इसे पड़ने वाले लोग जागरूक हो सके। भले ही मुझे बेहद सीमित लोग पढ़ते होंगे ; लेकिन जितने पढ़ते है ; अगर उतने भी जागरूक हो गए और उन्होंने भी उतनों को ही जागरूक कर लिया । तो मैं ये मानूँगा कि मेरे लिखने का औचित्य सिद्ध हुआ


अंत में उस आत्मा को शांति ; जिसके बरक्स ये पूरा लेख लिखा गया। ईश्वर उनकी आत्मा को चिर शांति दें ; साथ ही उस परिवार को आने वाली चुनौतियों से लड़ने की अपार शक्ति प्रदान करें और जल्द ही उन्हें सामान्य जीवन में वापसी का संबल प्रदान करें।

संकर्षण शुक्ला